द्वितीया अन्ताराष्ट्रिया संगोष्ठी की प्रथम दिवसीय प्रेस वार्ता (रिपोर्ट)


द्वितीया अन्ताराष्ट्रिया संगोष्ठी की प्रथम दिवसीय प्रेस वार्ता (रिपोर्ट)

आज दिनांक 19/02/2025 प्रातः 10:15 पर संस्कृत, पालि, प्रकृत एवं प्राच्य भाषा विभाग , इलाहाबाद विश्वविद्यालय के द्वारा "भारतीय ज्ञान परम्परा एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती विषयक द्विदिवसीया अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रारम्भ हुआ

इस क्रम में संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र का सञ्चालन संस्कृत विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय की सहायक आचार्या डॉ. प्रतिभा आर्या ने किया है जो इस संगोष्ठी की संयोजिका भी है

उद्घाटन सत्र में सर्वप्रथम विभाग की छात्राओं द्वारा वैदिक मङ्गलाचरण किया गया, सभी अभ्यागत अतिथियों विद्वानों एवं वक्ताओं को पुष्पगुच्छ, प्रावार(शॉल) तथा स्मृतिचिह्न प्रदान कर स्वागत एवं अभिनन्दन किया गया तथा एक शोधग्रन्थ का लोकार्पण भी किया गया है।

अतिथियों का वाचिक स्वागत एवं अभिनन्दन संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो प्रयाग नारायण मिश्र सर ने किया 

कार्यक्रम की अध्यक्षता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. आशीष खरे जी ने किया, मुख्य अतिथि स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी जो परमार्थ निकेतन आश्रम ऋषिकेश के अध्यक्ष है वे अस्वास्थ्यवशात् उपस्थित नही हो सके, विशिष्ट अतिथि के रूप में जे एन यु नई दिल्ली के लब्धप्रतिष्ठ आचार्य प्रोफेसर सुधीर कुमार आर्य जी रहे, सारस्वत अतिथि के रूप में पाणिनि कन्या‌ महाविद्यालय वाराणसी की प्राचार्या उपस्थित रही, मुख्य वक्तृत्वेन अमेठी से पधारे प्रोफेसर ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी उपस्थित रहे, इसके अतिरिक्त दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर धर्मेन्द्र कुमार शास्त्री जी , गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय से प्रोफेसर ब्रह्मदेव जी सपत्नीक पधारे, देश‌के नैकविध विश्वविद्यालयों से तथा महाविद्यालयों से सुधी विद्वान् इस कार्यक्रम में उपस्थित रहे । संयोजिका ने महर्षि दयानन्द के जीवन परिचय से लेकर कर्तृत्व परिचय भी प्रदान किया, 

तत्पश्चात् बीजवक्तव्य देते हुये आचार्य ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी के कहा कि १२ फरवरी १८२५ इस्वी को उनका जन्म हुआ था, चौदह वर्ष तक समग्र शास्त्रों का निरन्तर अध्ययन किया तथा योगविद्या में निष्णान्त हो गए इतोपि ज्ञान की कमी है ऐसा प्रतीत होने पर मथुरा में श्री गुरु विरजानन्द दण्डी स्वामी जी से अष्टाध्यायी को भलिभांति अध्ययन किया , दण्डी स्वामी जी ने गुरुदक्षिणा में दयानन्द से भारतखण्ड का उद्धार करने हेतु २० हजार पृष्ठ लिखित संख्या युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार, लेखन व्यापक है, राधावल्लभ त्रिपाठी के अनुसार शास्त्रार्थ परम्परा जो लुप्त हुयी थी जिसका पुनरुद्धार स्वामी दयानन्द जी ने किया अनेक पदयात्राएं‌ की, ४ वोल्युम में पत्र विज्ञापन छपे हैं, स्वामी जी के समय में सूचीव्यवस्था नही थी गणितविद्या रसायन विद्या इत्यादियों‌को उपस्थापित किया, 

उनके कार्य भारतीय समाज का उत्स वेद है, अपौरुषेय वेद के पठनपाठन लुप्त प्राय था

इन्होंने शंकराचार्य के "सशरीरत्वे हि संसारित्वं प्रसंगात्, रुपाद्याकाररहितमेव ब्रह्मपदमवधेयम्" का आधार देते हुये स्वामी दयानन्द जी के मत को पुष्ट किया, "आरोहन्ति जनयो योनिमग्ने" के स्थान पर "अग्रे" तत्कालीन पण्डितो ने सतीप्रथा का समर्थन किया था वही राजाराम तथा स्वामी दयानन्द जी ने सही अर्थ कर विरोध किया।  सत्यव्रत सामश्रमी ने स्वामी दयानन्द जी का मत बतलाया "यथेमां वाचं कल्याणीमावदानी जनेभ्यः" इससे स्त्रीशिक्षा का समर्थन किया, स्वामी दयानन्द जी वेद की प्रतिस्थापना की, अन्त में इन्होने दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों को पढने का आग्रह किया तथा आचार्य ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न कीजिए तथा बहुश्रुत होइए, 

आगे श्रद्धेय सुधीर कुमार आर्य जी ( जे एन यु.)

ने कहा है कि आचार्य की परिभाषा में ही आचरण तत्त्व झलकता है। इन्होंने प्राचीन काल में हुयी वेद तथा यज्ञ के नाम पर उच्छृंखलता का वर्णन कर महर्षि दयानन्द की महत्ता प्रतिपादन किया। महर्षि दयानन्द के अनुसार वेद कभी भी हिंसा का प्रतिपादन नहीं करते हैं नैकविध भाष्यकारों ने अग्नि का अर्थ मात्र फायर किया है किन्तु म दयानन्द जी ने उसका अर्थ निरुक्त ने अनुसार अग्रणी या नेता के रूप में किया है ऐसे अनेक उदाहरण यथा - वामन, पुरोहित, विष्णु इत्यादि प्रो सुधीर आर्य जी ने प्रस्तुत किए, म दयानन्द वेदांग को साथ में रखते हुए वेद मन्त्रों का भाष्य करते हैं, इन्होंने अथर्ववेद के भूमि सुक्त की भी सुन्दर व्याख्या प्रदान की तथा "माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः" के उद्घोष को सार्थक किया। इसी क्रम में इन्होंने म. दयानंद सरस्वती विरचित "संस्कृत वाक्य प्रबोध" पुस्तक की महनीयता की भी चर्चा की। इन्होने "पावका नः सरस्वती..." मन्त्र से सरस्वती स्वरूपा नारियों के विद्यावती होने की बात भी महर्षि दयानन्द सम्मत की।, यथावसर इन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत "संस्कारविधि" ग्रन्थ की भी चर्चा की। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने जालन्धर में प्रथमतया महिलाओं के लिए गुरुकुल निर्माण किया।  भारत की पहली गौशाला का निर्मिति रेवाडी के अन्दर की थी। महर्षि दयानन्द जी समाज में समानता अथवा समता के पक्षधर थे इस बात को "समानि प्रपा सह वोअन्नभागा...." इस वेदमन्त्र के माध्यम से प्रस्तुत की।  गुण कर्म स्वभावानुसार समाज में विवाह होने चाहिए ऐसे विचार प्रो सुधीर आर्य जी ने महर्षि दयानन्द सम्मत प्रदान किये। सर ने बताया कि महर्षि दयानन्द जी भारतीय पुनर्जागरण के प्रथम पुरोधा थे। 

तत्पश्चात् नन्दिता शास्त्री जी ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया प्रथमतया इन्होंने महाकुम्भ की प्रशंसा करते हुए महर्षि दयानन्द के कार्यों को पाथेय बनाने का निवेदन किया। कतिपय भाष्यकारों द्वारा कृत भ्रष्टताओं के कारण उत्तम उन्नत ज्ञान जनसाधारण तक सटीक रीत्या पहुंचाने के लिए महर्षि दयानन्द का अभूतपूर्व योगदान है। इन्होंने बताया कि व्याकरण पढने का उद्देश्य भी वेदों की रक्षा करना ही है।  महर्षि दयानन्द का यह डिण्डिमघोष "वेदों की ओर लौटो" को स्वव्याख्यान में उपस्थापित की है। महर्षि दयानन्द के अनुसार गौरी पद का अर्थ गौरवर्ण न करके गवि वाचि विद्यते या सा गौरी ऐसा अर्थ प्रस्तुत किया है विदुषी नारियों की महत्ता को प्रतिपादित किया है। अन्त में सत्राध्यक्ष के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो आशीष खरे जी ने अध्यक्षीय उद्बोधन प्रस्तुत किया। इन्होंने बताया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय वर्तमान में अपने पूर्ण उन्नति को प्राप्त है। भारतीय ज्ञान परम्परा में पराधीनता काल में पर्याप्त समाज सुधारक आएं परन्तु म दयानन्द जी ऐसे थे जो सुधार के लिए शिक्षा को प्रबल बनाने के समर्थक थे, वर्तमान में यदि अपने डि एन ए सिक्वेन्स को यदि ठीक किया जाए तो अनेक बिमारियों को ठीक किया जा सकता है इसको प्रस्तुत पहले म. दयानन्द ने अपनी संस्कारविधि मे दिग्दर्शित किया। दयानन्द सरस्वती जी ने बहुत सारी पुस्तके हिन्दी में लिखी वे हिन्दी भाषा के पक्षधर थे क्योंकि सामान्य जनसाधारण की बातो में कही गयी बात का असर कई दूर तक रहता है। इन्होंने बताया कि दयानन्द जी ने धार्मिक सामाजिक सुधार भी पर्याप्त किए। आशीष खरे जी का मानना है कि वैदिक कालावधि में महिलाओं की शैक्षिक एवं सामाजिक स्थिति पर्याप्त अच्छी थी , दयानन्द जी ने राजधर्म पर भी विचार किया है। महर्षि दयानन्द ने कहा है कि कला विज्ञान और संस्कृत की  शिक्षा दि जानी चाहिए। अतः कहा जाए तो  महर्षि दयानन्द जी को अवश्य जानना चाहिए

अन्त में धन्यवाद ज्ञापन संस्कृत विभाग की सह आचार्या डॉ. निरुपमा त्रिपाठी ने किया। 


इसके पश्चात् द्वितीय सत्र का प्रारम्भ हुआ जिसके सञ्चालक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृतविभाग के सहाचार्य डॉ विनोद कुमार जी रहे तथा सत्राध्यक्ष बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पधारे प्रोफेसर सदाशिव कुमार द्विवेदी जी रहे, मुख्यवक्ताओं प्रथम वक्त्री जम्मू विश्वविद्यालय से पधारी डॉ. प्रियंका आर्या जी ने अपने वक्तव्य में कहा है कि म. दयानन्द जी ने विषय को मन्त्र के उपर विषय निगदित करते हुये फिर भाष्य में पदार्थ करते है फिर भावार्थ करते है। इन्होंने सूर्य चक्षु इत्यादि शब्दों के माध्यम से म. दयानन्द के भाष्य की महत्ता प्रतिपादित की। म. दयानन्द ने विद्युतविद्या, यानविद्या, भौतिक विद्या,  का भी वर्णन किया है वेदों में जीवविज्ञान के विषय भी यजुर्वेद भाष्य में दयानन्द स्वामी ने बतलाए हैं। इन्होंने कहा कि आवश्यकता यह है कि हमारी वेदों पठनपाठन के प्रति दृष्टि वैज्ञानिक हो 

तत्पश्चात् वसन्त महिला महाविद्यालय राजघाट वाराणसी से पधारे बृहस्पति भट्टाचार्य जी ने कहा कि 

योषा शब्द पर विचार किया है - यौति मिश्रयति सत्त्वादि आचाराद् अमिश्रयति अज्ञानादि अन्धकारात्, 

"गोघ्नो अतिथि " वाणी , गाय इसका अर्थ गाय को मारनेवाला अतिथि न हो कर गाय के लिए अन्न अपने भोजन से पहले निकाला जाए किन्तु अतिथि पूर्व आ जाए तो वो जो गाय के लिए अन्न रखा गया है वह उसे दिया जा सकता है यह अर्थ है ऐसे अनेक अर्थ महर्षि दयानन्द जी ने दिया है, भ्रान्तियों के निराकरण के लिए महर्षि दयानन्द जी को पढना अनिवार्य है।

इनके अनुसार महर्षि दयानन्द जी के विचार वर्तमान समय में अनिवार्य है। इन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द के विचार बहु आयामी विचार है। डॉ विनोद कुमार सर ने महाभारत के शान्ति पर्व के २०६ अध्याय से एक श्लोक के माध्यम से बताया कि जिह्वा के लोलुप तथा धन के लोलुप लोगों के द्वारा वेदों को आधार बनाकर अर्थ किए गए  है। इसी क्रम में इन्होंने इस शोध संगोष्ठी के माध्यम से महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों में भी  शोधाध्ययन हो यही प्रयोजन है इसे केवल आर्यसमाज का प्रचार न समझें

अन्त में सदाशिव कुमार द्विवेदी जी ने अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए कहा कि ऋग्वेदभाष्य हमारी क्रान्तिकारी कृति है। महर्षि दयानन्द सरस्वती का काल संघर्ष का काल था इन्होंने हमे नूतन वर्त्म प्रदान किया ये है- मेकर्स ओफ मोडर्न इण्डिया" दयानन्द जी संपूर्ण समाज को स्वराज्य की ओर मोडा स्वराष्ट्र्, स्वभाषा स्वधर्म से इत्यादियों के माध्यम से, भारतीय तर्क में भावना भी जुडी हुयी है पाश्चात्यो में यह नहीं है लोग को देखकर संवाद माध्यम से अत्यन्त तार्किक दृष्टि से यह भारतीय ज्ञान परम्परा विकसित हुयी है। अतिथियों का स्वागत भारतीय जनमानस में व्यापृत रहना चाहिए तत्पश्चात् धन्यवाद ज्ञापन डॉ भूपेन्द्र वालखडे जी के द्वारा किया गया।

तत्पश्चात् तृतीय सत्र प्रारम्भ हुआ जिसका सञ्चालन डॉ सन्त प्रकाशतिवारी जी के द्वारा किया गया , मुख्य वक्ता डॉ कल्पना आर्या, डॉ अमृता आर्या तथा प्रोफेसर ब्रह्मदेव जी मञ्चासीन रहे, इस सत्र के अध्यक्ष हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कुमार वीरेन्द्र जी रहे। 

डॉ कल्पना आर्या ने स्व वक्तव्य में कहा कि महर्षि दयानन्द कहा है कि ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त जितने ग्रन्थ हैं वे सब आर्ष हैं उनका अध्ययन महिलाओं के लिए भी होना चाहिए। कात्यायन श्रौतसूत्र "स्त्री चाविशेषात्" इस सूत्र के अनुसार "भर्त्रा सहैव" इस प्रकार स्त्री को स्वतन्त्र रूप से यज्ञाधिकार नही है। किन्तु महर्षि दयानन्द कहते है कई वार कि "इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्" तदनुसार स्त्री अध्ययन करने वाली होगी तभी वह मन्त्र पढ सकती है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञाधिकार महिलाओं को दिया। इन्होंने वर्तमान समस्याओं से  तुलना करते हुये पर्याप्त चर्चा प्रस्तुत की। 

द्वितीय वक्त्री हिन्दी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय की सहायक आचार्या डॉ अमृता आर्या ने स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका नवजागरण विषय पर उन्होंने कहा कि मैं दयानन्द सरस्वती को प्रगतिशील मानती हूं इस सन्दर्भ में उन्होंने केशव चन्द्र शास्त्री तथा म. दयानन्द सरस्वती के मध्य के हिन्दीभाषा विषयक वार्तालाप को बताती है , दयानन्द जी ने आदिवासी बाघेल जाती के शौर्य का उदाहरण देते है इसी प्रकाश प्रोफेसर ब्रह्मदेव जी ने महर्षि दयानन्द जी के पत्रव्यवहार से प्राप्त विचारों‌ को सबके समक्ष प्रस्तुत किया। 

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